हृदय मेरा कोमल अति सहा न पाए भानु ज्योति
प्रकाश यदि स्पर्श करे मरे हाय शर्म से
भ्रमर भी यदि पास आये भयातुर आँखे बंद हो जाए
भूमिसात हम हो जाए व्याकुल हुए शर्म से
कोमल तन को पवन जो छुए तन से फिर पपड़ी सा निकले
पत्तों के बीच तन को ढककर खड़े है छुप – छुप के
अँधेरा इस वन में ये रूप की हंसी उडेलूंगी मै सुरभि राशि
इस अँधेरे वन के अंक में मर जाउंगी सूख-सूख कर
17 Sep
Posted by राजभाषा हिंदी on September 18, 2010 at 7:37 am
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है। साहित्यकार-महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
Posted by मनोज कुमार on September 17, 2010 at 11:51 pm
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
Posted by संगीता स्वरुप ( गीत ) on September 17, 2010 at 1:44 pm
बहुत सुन्दर
Posted by arvind on September 17, 2010 at 1:11 pm
इस अँधेरे वन के अंक में मर जाउंगी सूख-सूख कर …vaah sundar kaavyadristi.
Posted by Anonymous on September 17, 2010 at 1:00 pm
badhia hai
Posted by Nityanand Gayen on September 17, 2010 at 12:01 pm
बहुत सुन्दर