पिघलते क़तरों में……….


पिघलते क़तरों में जो लम्हा है जीया
उन लम्हों की क़सम मैंने ज़हर है पीया –

कोई वादा नहीं था इक़रार-ए-बयाँ  का
कानों से उतर के वो दिल में बसा था ॥

अश्क़ों से लबालब ये वीरान सी आँखें
ग़म की ख़ुमारी और बोझल सी रातें –

दीदार-ए-यार कभी सुकूँ-ए-दिल था
देके दर्दे इश्क़ तेरे साथ ही चला था ॥

नालिश जो थी तेरे लिए तेरे ही खातिर
बयाँ न हो पाया वो अहसास गुज़र गया –

दरों दीवार जो दो दिलों का था आशियाना
मजार-ए-इश्क़ आज वहीँ पे दफ़न है  ॥ 

माथे की लकीरों में


माथे की लकीरों में बसा है 
तज़ुर्बा – ए -ज़िन्दग़ी 
यूं ही नहीं बने हैं 
ज़ुल्फ़-ए-सादगी ॥ 

ख़्वाहिशों से भरा घर 
मुक़म्मल हो नहीं सकता 
बहुत सी ठोकरें खाकर 
सम्भला है ज़िन्दगी ॥ 

अरमान अपने भुलाकर ही 
पाया है अपनों का प्यार 
हसरतें अपनी छुपाकर ही 
मिली है खुशियां हज़ार ॥ 

हम बे मुरव्वत मुरादबीं 
अपने इरादों को मसलकर 
अपनों में बसे अपनों की 
अपनीयत ढूंढते है ॥ 


वो दिन बारिश के…..












याद है वो दिन बारिश के ?
जब भी निकले- छाते को बंद कर  –
लटकाए से घूमा करते थे –


भींगना था पर पानी में ही नही ,
तुम्हारे साथ बीते हुए पलों के
 बौछारों में –

सनसनाती हवाएं , सोंधी सी 
मिटटी की खुशबू , बताये देती थी ,
मौसम भींगा है –

बहुत देर तक – चुपचाप-जाते हुए 
लम्हों को देखा करते थे – कोशिश थी –
पकड़ने की-

वक्त अपने वक्त के हिसाब से –
वक्त दिखाकर चला गया-हम लम्हों –
को ढूँढ़ते रह गए –

रास्ते अब भी वहीं है –
बारिश के दिनों में भींगती हुई –      
बस दो हाथ अलग हुए ॥ 

छुईमुई सी लम्हें ….










छुईमुई सी लम्हें 
खुश्बू से भरी वो यादें 
तेरे आने की आहट 
वो झूठ मूठ के वादे 

छुप-छुपके पीछे आना 
हाथों से आँखें ढकना 
पकडे जाने के डर  से 
दीवारों में छुप जाना 

तेरे खातिर जो दिल ये 
डोल -डोल फिरता था 
तुझसे ही जाने क्यों ये 
मुझको छिपाए फिरता था 

वो आँखें ढूंढती सी 
जो मुझपे ही फ़िदा थी 
पर तुम न जान पायी 
मुझे जान  से वो प्यारी थी 

धीरे से सामने आना 
आकर सीने से लिपटना 
लम्हों से गुज़ारिश थी ये 
धीरे धीरे सरकना 

यादों के बज़्म से ये
 कुछ चित्र बनाया मैंने 
पर लम्हों की फितरत है 
उसे छू न सका किसी ने 

कैसे समझाऊँ दिल को 
लहूलुहान है ये 
वो  अतीत के पल जो 
सूई चुभो जाती है 

लो पूरब से सूरज निकला ….











नन्हें पाँव रात आई 

आँखों में उतरी वो ऐसे 
मानो  कोई सपना है वो 
नींदे भर लायी हो जैसे 









पल-पल सपना हर पल अपना 
क्या है हकीक़त क्या है अपना 
सब कुछ जैसे छुई -मुई 
रात ढल न जाए ऐसे 










जब भी मैंने आँखें मूंदे 
चाँद की आह्ट सी आई 
मंथर गति समय ये गुजरे 
दिन के जैसे रात भी गयी 









प्रातः स्नात सम ये सूरज 
धीरे-धीरे नभ में फैला 
स्याह रात बन गयी कहानी 
लो पूरब से सूरज निकला 

भींगी हुई आँखों से………













भींगी हुई आँखों से जाती हुई रातों ने ,
जाने क्या-क्या कह गयी उसने बातों बातों में ॥ 

बातें जो कह गयी चुपके से रातों ने , 
अश्कों ने लिख दिए लम्हों की ज़ुबानी ये ॥ 

अश्कों के बूंदों में डूबी हुई ज़िन्दगी , 
जाने कब सुबह हो और ये आँखें खुलें ॥ 

न रहे हम होश में ख़ामोश है ज़िन्दगी ,
आ बैठें पहलू में सुन लूं तेरी ख़ामोशी ॥ 

मैं भी अंजाना हूँ ,तू भी अंजानी है ,
अंजानी रातों का बस ये कहानी है ॥ 

रंग….फीका सा










हंसती हुई आँखों में जो प्यार का पहरा रहता है-
असल में उन आँखों के ज़ख्म गहरे होते है ||

जलती हुई लौ भी जो उजारा करे मजारों को-
सुना है उन मजारों को बड़ी तकलीफ होती है ||

दिल जो किसी के प्यार का जूनून लिए चलता है-
उन्हीं दिलों में धोखों के अफ़साने छुपे रहते है ||

रात जो लेकर आती है चांदनी की बौछारें –
उन्हीं रातों में अमावस की रात भी शामिल होती है ||

हवाओं में बहती हुई दिखते है जो प्यार के रंग-
उन्हीं रंगों में एक रंग फीका सा भी होता है ||

सौ साल बाद……..


सौ साल पहले भी मैंने तुम पर कविता रचा था
सौ साल बाद आज तुम पढ़ने आई II
आँखों की भाषा जो मैंने उस समय पढ़ लिया था
सौ साल बाद आज तुम कहने आई II

जिन आँखों को आंसुओं से  धोया था हमने
उस वक़्त को इशारों से रोका था जो हमने
धूप छाँव सी ज़िन्दगी में अब बचा ही क्या है ?
सौ साल बाद आज तुम रंग भरने आई II

सांस  लेने की आदत थी….. लेता रहा तक
सदियों से बरसों से आदतन जीता रहा अब तक
ख़ामोशी को बड़ी ही ख़ामोशी से आज जब गले लगाया
सौ साल बाद आज वो रिश्ता तुम आजमाने आई II

लम्हा जब लकीरों में बंटा…….


 
          लम्हा जब लकीरों में बंटा

तो उस पार मैं खड़ा था
इस पार   तुम थी-

शायद मैं इस इंतज़ार में था 

कि ये दाग मिट जाए 
पर हो न सका !!

शायद तुम इस फ़िराक 
में थी कि  ये दाग पट जाए 
तो लांघने की नौबत न आये 

पर लम्हों को इन हरकतों का 

इल्म पहले से था शायद 
दाग गहराते चले गए 
और एक दूजे का हाथ 
पकड़ न पाये !!

अब भी लकीर के इस पार लम्हा 

यूं ही मूंह बांयें खड़ा है 
वक़्त के दाग को थामे 
हाथ पसारे अड़ा है 

मेरे कदम जमे है 

उन्हीं  लकीरों को पाटती हुई 
कहीं वो मेरे इंतज़ार में-
मिल जाएगी जागती हुई 

लम्हों से गुज़ारिश है 

ये बता दे की वो कहाँ मारेगी ?
जुनूँ – ए  -ज़िन्दगी जीतेगी या 
वक़्त हारेगी !!!!


वो शख्स न मिला ••••••••


वो शख्स नहीँ मिला
जो आईना सा मुझे अक्स दिखाए
आंखोँ के कोरो में छुपी लालिमा मे
दिल का छुपा जख्म दिखाये

वो खुद्दारी ही थी
जो तेरी यादों से हमेशा जूझता रहा
अपने घर के दरो दीवार मेँ हीं
अपने साये को टटोलता रहा

वो मैं ही था
जो वफा पे वफा किए जा रहा था
बिना कसूर के  बरसों से ये दिल
ज़माने का ज़ख़्म लिए जा रहा था

वो बारिश न मिली
जो झरने सा तन भिगो सके
मन के अन्दर के तूफाँ को
दरिया सा राह दिखा सके