मैं जिंदा हूँ
अन्याय का खिलाफत मैं कर नहीं पाता
कुशासन-सुशासन का फर्क समझ नहीं पाता
प्रदूषित हवा में सांस लेता हूँ
पर मैं जिंदा हूँ
सरकारी तंत्र से शोषित हूँ मैं
बिना सबूत आरोपित हूँ मैं
खुद को साबित मैं कर नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
दिल से चीत्कार उठती है
मन में हाहाकार मचती है
होंठों से कोई शब्द निकल नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
रक्त में उबाल अब भी है
भावनाओं में अंगार अब भी है
बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से
काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से
नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,
एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता
पर मैं जिंदा हूँ
Posted by Naveen Mani Tripathi on January 17, 2012 at 12:09 am
क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता पर मैं जिंदा हूँ vah bahut hi sundar kriti shukl ji ….badhai ke sath abhar.
Posted by अनामिका की सदायें ...... on January 15, 2012 at 5:14 pm
BAS THODA HI DOOR HO….MANZIL SE….THODI SI HIMMAT KAR LO….FIR SACHHE MAAYNO ME JINDA RAHOGE.SUNDER SATEEK PRASTUTI.
Posted by मनीष सिंह निराला on January 15, 2012 at 4:51 pm
सुंदर प्रस्तुति !
Posted by यशवन्त माथुर (Yashwant Mathur) on January 15, 2012 at 11:11 am
मकर संक्रांति की हार्दिक शुभ कामनाएँ।—————————- आज 15/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
Posted by snowyys on November 6, 2011 at 4:00 pm
अच्छी कविता है…
Posted by bhairawi on November 15, 2011 at 5:08 pm
thanx…for visit
Posted by हरकीरत ' हीर' on November 4, 2011 at 2:05 pm
रक्त में उबाल अब भी है भावनाओं में अंगार अब भी है बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाताआपकी कविताओं में ओज रस है ….जागृत स्वर …..
Posted by amrendra "amar" on November 3, 2011 at 2:20 pm
sartajk rachna ke liye aabhar
Posted by Human on October 31, 2011 at 11:15 pm
संदेषपूर्ण व यथार्थपरक कविता ।
Posted by श्रीप्रकाश डिमरी on October 31, 2011 at 8:02 pm
क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता पर मैं जिंदा हूँ ..आम आदमी की बेबसी का बयां करती भावपूर्ण अभिव्यक्ति .सादर!!श्रीप्रकाश डिमरी
Posted by kase kahun?by kavita verma on October 30, 2011 at 8:24 pm
aam insan ki vivshta bakhoobi vyakt hui hai..
Posted by M VERMA on October 30, 2011 at 8:21 pm
रक्त में उबाल अब भी है भावनाओं में अंगार अब भी है यकीनन यह जिन्दा होने का प्रमाण है
Posted by रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा" on October 30, 2011 at 2:46 pm
बहुत सुंदर शब्दों द्वारा अच्छी अभिव्यक्ति की है. पढकर लगा मेरी ही परिस्थितियों पर लिखी गई है. आप बेशक मेरी स्थिति को मेरे ब्लोगों को पढकर अनुभव किया जा सकता है. बस थोड़ा-सा अंतर है, अपनी लेखनी से जितना हो सकता है. उतना अन्याय का विरोध जरुर कर रहा हूँ.मैं जिंदा हूँ अन्याय का खिलाफत मैं कर नहीं पाताकुशासन-सुशासन का फर्क समझ नहीं पाता प्रदूषित हवा में सांस लेता हूँ पर मैं जिंदा हूँ सरकारी तंत्र से शोषित हूँ मैं बिना सबूत आरोपित हूँ मैंखुद को साबित मैं कर नहीं पाता पर मैं जिंदा हूँ दिल से चीत्कार उठती है मन में हाहाकार मचती है होंठों से कोई शब्द निकल नहीं पाता पर मैं जिंदा हूँ रक्त में उबाल अब भी है भावनाओं में अंगार अब भी है बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता पर मैं जिंदा हूँ क्यों डरता हूँ इस झूठे तंत्र से काश मन जागृत हो कोई मन्त्र से नष्ट कर दूं उन कुकर्मियों का ,एक भीड़ मैं जुटा नहीं पाता पर मैं जिंदा हूँ
Posted by दिगम्बर नासवा on October 30, 2011 at 2:30 pm
इंसान कितना विवश है … चाहते हुवे भी कुछ कर नहीं पाता इस तंत्र में … सही लिखा है …
Posted by कुश्वंश on October 30, 2011 at 12:09 am
सुंदर प्रस्तुति। भावों का बेहतरीन चित्रण।
Posted by Atul Shrivastava on October 29, 2011 at 10:39 pm
सुंदर प्रस्तुति। मन के भीतर के भावों का बेहतरीन चित्रण।
Posted by Anonymous on October 29, 2011 at 7:41 pm
आज के परिवेश का सटीक चित्रण…***punam***bas yun..hi…tumhare liye…
Posted by अनुपमा पाठक on October 29, 2011 at 7:03 pm
इसी विवशता से जब संकल्प जन्मेगा तब जीवन सार्थक होगा!
Posted by Ratan Singh Shekhawat on October 29, 2011 at 3:10 pm
मर्मस्पर्शी और भावनात्मक प्रस्तुति Gyan DarpanRajputsParinay
Posted by संजय भास्कर on October 29, 2011 at 2:42 pm
हरेक पंक्ति बहुत मर्मस्पर्शी है। कविता अच्छी लगी । संजय भास्करआदत….मुस्कुराने कीपर आपका स्वागत हैhttp://sanjaybhaskar.blogspot.com
Posted by sushma 'आहुति' on October 29, 2011 at 2:07 pm
sarthak abhivaykti…
Posted by वन्दना on October 29, 2011 at 1:38 pm
उफ़ आम आदमी की विवशता का सटीक चित्रण किया है।
Posted by रश्मि प्रभा... on October 29, 2011 at 12:17 pm
रक्त में उबाल अब भी है भावनाओं में अंगार अब भी है बस विद्रोह के स्वर गा नहीं पाता पर मैं जिंदा हूँ jo kunthaaon ko janm de raha
Posted by S.N SHUKLA on October 29, 2011 at 10:26 am
सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति , बधाई.